1. कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि॥
हिंदी में समझाव: तुम्हारा कर्म करने का अधिकार है, परन्तु फल की आकांक्षा मत करो। और न ही तुम्हारा संग कर्म में होना चाहिए।
2. योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय।
सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते॥
हिंदी में समझाव: अर्जुन, योग में स्थिर रहकर कर्म करो, संग को त्याग दो। सिद्धि और असिद्धि में समान बनकर समत्व प्राप्त करो, वही योग कहलाता है।
3. श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः॥
हिंदी में समझाव: अपने स्वधर्म में अगर दोष हो, तो भी उसे अच्छा ही मानो और परधर्म में निष्क्रिय रहने से भय होता है। अपने स्वधर्म का नाश करना परधर्म से अच्छा है।
4. यदृच्छालाभसन्तुष्टो द्वन्द्वातीतो विमत्सरः।
समः सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते॥
हिंदी में समझाव: जो यथार्थता को प्राप्त होने पर संतुष्ट है, द्वंद्वों से परे है और द्वेष नहीं करता, वह सिद्धि और असिद्धि में समान बनकर कर्म करता है, उसे कुछ नहीं बाँधता॥
5. ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति।
समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम्॥
हिंदी में समझाव: जो ब्रह्मभूत हो गया है, स्वयं से प्रसन्न है, किसी पर शोक नहीं करता और किसी से कुछ भी चाहता नहीं है, वह सभी भूतों में समान है और मेरी उनकी पराम्परिक भक्ति प्राप्त करता है।
6. योगिनः कर्म कुर्वन्ति सङ्गं त्यक्त्वाऽत्मशुद्धये।
स द्विजः सम्प्रधायात्मनं कामकारत्म्यविमूढः॥
हिंदी में समझाव: योगी अपनी आत्मा की शुद्धि के लिए संग को त्यागकर कर्म करता है। वह ज्ञानी ब्राह्मण, जो अपने आत्मा को ज्ञान द्वारा समझने से उनकी कामनाओं में मोहित नहीं होता।
7. ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा करोति यः।
लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा॥
हिंदी में समझाव: जो ब्रह्म को अपना कर्म समर्पित करके संग से त्यागकर करता है, वह पाप से लिप्त नहीं होता, जैसे कि जल में कमलपत्र लिप्त नहीं होता। इसका अर्थ है कि वह अपने कर्मों से आत्मा को शुद्ध रखता है।
8. योगसन्न्यस्तकर्माणं ज्ञानसञ्छिन्नसंशयम्।
आत्मवन्तं न कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय॥
हिंदी में समझाव: जो कर्मों को त्यागकर योग में स्थित हो, उसका ज्ञान संशयरहित हो जाता है। ऐसे आत्मवान पुरुष को कर्म बाँध नहीं सकते, अर्जुन। इसमें यह समझाया जाता है कि सही ज्ञान के द्वारा कर्मों का त्याग करना महत्वपूर्ण है।
9. न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा।
इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते॥
हिंदी में समझाव: मेरे कर्म मुझे बंधन में नहीं डाल सकते, और मुझे कर्मफल की आकांक्षा भी नहीं है। जो इस तरह मुझे जानता है, वह कर्मों से बाँधा नहीं जाता है। यहाँ भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को अपने कर्मों को निष्काम भाव से करने की प्रेरणा दे रहे हैं।
ये श्लोक भगवद् गीता के महत्वपूर्ण सिद्धांतों को संक्षेपित रूप में प्रस्तुत करते हैं और व्यक्ति को जीवन में सही मार्ग पर चलने के लिए मार्गदर्शन करते हैं।
10. दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनञ्जय।
बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः॥
हिंदी में समझाव: हे धनंजय, कर्म को बुद्धियोग से दूर रखो, क्योंकि बुद्धि में ही शरण है। फल की आकांक्षा वाले लोग दीन होते हैं, क्योंकि वे कर्म करते हैं फल के लिए। यहाँ यह सिखाया जाता है कि कर्म को भावना और बुद्धियोग से किया जाना चाहिए, फल की चिंता करने के बजाय।
11. यत्तदग्रे विषमिव परिणामेऽमृतोपमम्।
तत्सुखं सात्त्विकं प्रोक्तमात्मबुद्धिप्रसादजम्॥
हिंदी में समझाव: वह जो विषयों के परिणाम में अमृत के समान होता है, उसे सात्त्विक सुख कहा गया है, क्योंकि वह आत्मबुद्धि और प्रसन्नता से उत्पन्न होता है। यहाँ यह बताया जाता है कि सात्त्विक सुख उसे मिलता है जो आत्मबुद्धि के प्रसाद से कर्म करता है।
12. विषयेन्द्रियसंयोगाद्यत्तदग्रेऽमृतोपमम्।
परिणामे विषमिव तत्सुखं राजसं स्मृतम्॥
हिंदी में समझाव: जो सुख विषयों और इंद्रियों के संयोग से प्राप्त होता है, वह राजस सुख कहलाता है, क्योंकि उसका परिणाम विषामृत के समान होता है। यहाँ यह समझाया जाता है कि राजस सुख विषयों के संयोग से होने वाला उसका परिणाम दुखमय होता है।
13. यदृच्छालाभसन्तुष्टो द्वन्द्वातीतो विमत्सरः।
समः सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते॥
हिंदी में समझाव: जो अपने प्राप्त हुए फल से संतुष्ट है, द्वंद्वों से परे है और द्वेष नहीं करता, वह सिद्धि और असिद्धि में समान बनकर कर्म करता है, उसे कुछ नहीं बाधित कर सकता॥ यहाँ बताया गया है कि सही बुद्धियोग और उचित भावना से कार्य करने से व्यक्ति को कोई भी परिस्थिति नहीं बाधित कर सकती।
14. ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा करोति यः।
लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा॥
हिंदी में समझाव: जो ब्रह्म को अपना कर्म समर्पित करके संग से त्यागकर करता है, वह पाप से लिप्त नहीं होता, जैसे कि जल में कमलपत्र लिप्त नहीं होता॥ इस श्लोक में यह बताया गया है कि यदि हम अपने कर्मों को भगवान के लिए समर्पित करते हैं और संग से त्यागते हैं, तो हमें पाप से नहीं लिपित होना पड़ता।
15. योगसन्न्यस्तकर्माणं ज्ञानसञ्छिन्नसंशयम्।
आत्मवन्तं न कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय॥
हिंदी में समझाव: जो कर्मों को त्यागकर योग में स्थित हो, उसका ज्ञान संशयरहित हो जाता है। ऐसे आत्मवान पुरुष को कर्म बाध नहीं सकते, अर्जुन॥ यह श्लोक हमें यह बताता है कि सही ज्ञान के द्वारा कर्म करने से हमें कोई भी शंका नहीं रहती है और हमारे कर्मों का परिणाम हमें बाँध नहीं सकता।
16. श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः॥
हिंदी में समझाव: अपने स्वधर्म में दोषरहित कार्य से परधर्म के आचरण से अच्छा होता है। स्वधर्म का नाश करना परधर्म से डरावना होता है। यहाँ यह सिखाया गया है कि हमें अपने कर्तव्यों का पालन करना चाहिए, जो कि हमारे लिए श्रेष्ठ होता है।
17. न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा।
इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते॥
हिंदी में समझाव: मेरे कर्म मुझे बंधन में नहीं डाल सकते, और मुझे कर्मफल की आकांक्षा भी नहीं है। जो इस तरह मुझे जानता है, वह कर्मों से बंधा नहीं जाता है। यहाँ यह सिखाया जाता है कि हमें निष्काम भाव से कर्म करना चाहिए, जिससे हमें बंधन मुक्ति प्राप्त होती है।
18. यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति।
तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च॥
हिंदी में समझाव: जब तुम्हारी बुद्धि मोह के अन्धकार से पार कर जाएगी, तब तुम श्रुतियों के और श्रोतव्य विषयों के प्रति निर्वेद प्राप्त करोगे। यहाँ यह बताया जाता है कि ज्ञान और विवेक के द्वारा मोह को दूर करने से हम अपने आत्मा के साक्षात्कार की ओर बढ़ सकते हैं।
19. श्रद्धावान् लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः।
ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति॥
हिंदी में समझाव: जो श्रद्धावान और इंद्रियों को संयमित रखने वाला है, वह ज्ञान प्राप्त करता है। उसने ज्ञान प्राप्त करके शांति को शीघ्र ही प्राप्त कर लिया॥ यहाँ यह सिखाया गया है कि श्रद्धा और इंद्रियों के संयम के माध्यम से हम शांति और ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं।
20. न जायते म्रियते वा कदाचिन्
नायं भूत्वा भविता वा न भूयः।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो
न हन्यते हन्यमाने शरीरे॥
हिंदी में समझाव: यहाँ भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को आत्मा के अनादि और अनंत स्वरूप का वर्णन कर रहे हैं। आत्मा कभी जन्म नहीं लेती, मरती नहीं है और न होने वाली है। यह शरीर में आने वाले युद्ध में भी आत्मा को कुछ भी नहीं होगा। इस श्लोक से हमें आत्मा की अनन्तता और अमरत्व की ज्ञान मिलता है।
21. वेदाविनाशिनं नित्यम् य एनमजमव्ययम्।
कथं स पुरुषः पार्थ कं घातयति हन्ति कम्॥
हिंदी में समझाव: यहाँ भगवान श्रीकृष्ण आत्मा के अजन्मा, अविनाशी, अव्यय स्वरूप का वर्णन कर रहे हैं। वेदों में भी यह आत्मा नाशरहित और शाश्वत बताई गई है। इसलिए, यहाँ अर्जुन से पूछा जा रहा है कि इस अविनाशी आत्मा को कैसे कोई मनुष्य हिंसित कर सकता है?
22. वासांसि जीर्णानि यथा विहाय
नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा
न्यन्यानि संयाति नवानि देही॥
हिंदी में समझाव: जैसे मनुष्य पुराने और बुरे वस्त्रों को त्यागकर नए वस्त्र पहनता है, वैसे ही आत्मा भी पुराने और जीर्ण शरीर को त्यागकर नए शरीर को प्राप्त करती है। इस श्लोक से यह समझाया जाता है कि आत्मा अनादि है और वह शरीरों के परिवर्तन में विचरण करती है।
23. नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः॥
हिंदी में समझाव: यहाँ भगवान श्रीकृष्ण आत्मा के अविनाशी स्वरूप का वर्णन कर रहे हैं। वे कहते हैं कि आत्मा को न तो कोई शस्त्र काट सकता है, न पावक उसे जला सकता है, न जल उसे गीला कर सकता है, और न ही वायु उसे सूखा सकता है। इस से यह सिखाया जाता है कि आत्मा अविनाशी और अमर है।
24. यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन।
कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते॥
हिंदी में समझाव: जो अर्जुन, अपने मन से इंद्रियों को नियंत्रित करता है और कर्मेंद्रियों द्वारा कर्म करता है, वह आसक्ति रहित कर्मयोग में विशेष है। यहाँ यह सिखाया गया है कि अपने मन की नियंत्रण के माध्यम से हम कर्मयोग में प्रशस्त हो सकते हैं।
25. सन्यासः कर्मयोगश्च निःश्रेयसकरावुभौ।
तयोस्तु कर्मसन्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते॥
हिंदी में समझाव: सन्यास और कर्मयोग, दोनों ही निःश्रेयसकर हैं, परन्तु उन दोनों में से कर्मसन्यास से कर्मयोग श्रेष्ठ है। यहाँ यह बताया गया है कि सही भावना और निष्काम कर्म के माध्यम से हम अपनी आत्मा के उद्देश्य को प्राप्त कर सकते हैं।
26. योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय।
सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते॥
हिंदी में समझाव: हे धनञ्जय, योग में स्थित होकर कर्म कर, संग त्यागकर। सिद्धि और असिद्धि में समान बनकर समता को योग कहते हैं। इस श्लोक से यह सिखाया जाता है कि सही भावना के साथ कर्म करने से हम अपने मन को समझाते हैं और समता की प्राप्ति कर सकते हैं।
27. यतेन्द्रियमनोबुद्धिर्मुनिर्मोक्षपरायणः।
विगतेच्छाभयक्रोधो यः सदा मुक्त एव सः॥
हिंदी में समझाव: जो मुनि इन्द्रियों, मन, और बुद्धि को नियंत्रित करके मोक्ष की प्राप्ति को अपना लक्ष्य बनाता है, और जिसकी इच्छाएं, भय, और क्रोध समाप्त हो गए हैं, वह सदा ही मुक्त रहता है। यह श्लोक हमें योगी की लक्षण समझाता है और योग के माध्यम से अपनी आत्मा की मुक्ति प्राप्ति की दिशा दिखाता है।
28. यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः।
न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम्॥
हिंदी में समझाव: जो शास्त्रविधि को त्यागकर अपने कामों के अनुसार चलता है, वह न तो सिद्धि प्राप्त करता है, और न ही अधिक उच्च गति और सुख को प्राप्त होता है। यहाँ यह बताया गया है कि शास्त्रों के अनुसार चलने से ही हमें आध्यात्मिक सिद्धि और आनंद की प्राप्ति होती है।
29. प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः।
अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते॥
हिंदी में समझाव: सभी कर्म प्रकृति के गुणों द्वारा स्वतः ही होते हैं। अहंकार में मोहित आत्मा यह मानता है कि मैं कर्ता हूँ। इस श्लोक से यह समझाया जाता है कि असल में कर्म प्रकृति द्वारा होते हैं, और यह अहंकार के भ्रम में रहने वाले के लिए ही कर्ताव्य है।
30. प्रकृत्यैव च कर्माणि क्रियमाणानि सर्वशः।
यः पश्यति तथात्मानमकर्तारं स पश्यति॥
हिंदी में समझाव: सब कर्म स्वभाव से ही होते हैं। जो अपने आत्मा को अकर्ता मानता है, वह वास्तव में सब को अकर्ता ही देखता है। यहाँ यह समझाया जाता है कि योगी वह होता है जो कर्मों को समझता है और उसके पीछे स्वभाव और अहंकार के प्रभाव से दूर रहता है।